कहते हैं ज्ञान अर्जित करने की कोई समय सीमा या उम्र नहीं होती। लेकिन अफसोस कि डिग्री हांसिल करने के क्रम में उम्र की बड़ी भूमिका होती है। उम्र के साथ रिज़ल्ट की भी भूमिका होती है, तथाकथित तौर पर। जैसे 12वीं में अपने पसन्द के किसी खास स्कूल में एडमिशन लेने के लिए 10वीं में अच्छे अंक की जरूरत होती है, ठीक वैसे ही बी.ए में अपने पसन्द के किसी खास कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए 12वीं में अच्छे अंक की जरूरत होती है। लेकिन जब हम अंतिम मुकाम पर पहुँच जाते हैं तो इन अंकों की हमारी ज़िंदगी में कोई खास एहमियत नहीं रह जाती। वर्तमान समय के किसी बड़े कॉरपरेट व्यक्ति या किसी डॉक्टर या इंजीनियर की 10वीं या 12वीं  की परीक्षा के अंकों को जानने के लिए सीबीआई की बैठक नहीं बुलाई जाती है।

आज सीबीएसई बोर्ड की इंटर परीक्षा का रिज़ल्ट आया है। खैर ये रिज़ल्ट का सीज़न है तो कोई-न-कोई रिज़ल्ट आये दिन निकल ही रहा है। अगले 24 या 48 घण्टे के भीतर शायद 10वीं के रिज़ल्ट भी आ जाये।

रिज़ल्ट की घोषणा जितनी ही स्वाभिक बात है, पन्ने भर के रिज़ल्ट को हमने रबड़ की तरह लम्बा कर उतना ही अस्वाभिक बना दिया है। एक तरफ बच्चे चिंतित हैं अपने रिज़ल्ट को लेकर तो दूसरी तरफ उनके रिश्तेदार सालों से चली आ रही परंपरा निभाने के लिए व्याकुल हैं। जिस तरह किसी पसंदीदा धारावाहिक के अगले एपिसोड को देखे बिना न नींद आती है, न ही भूख-प्यास सुहाता है। ठीक उसी तरह जबतक रिज़ल्ट को लेकर इन रिश्तेदारों की जाँच-पड़ताल पूरी न हो जाये, इन्हें चैन नहीं पड़ता। और पॉइंट दशमलव से हाय तौबा मचाने वाले इन चाचा, मामा और फूफा के क्या ही कहने! जिनको इन पॉइंट दशमलव जितना ही फर्क़ पड़ता है आपकी कामयाबी से।

लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि इन सब में पिस जाते हैं वो बच्चे जो इस रिज़ल्ट में ही अपना पूरा जीवन देखने लग जाते हैं। पॉइंट दशमलव ज़्यादा तो सफल इंसान और पॉइंट दशमलव कम तो असफल। तथाकथित असफल छात्र-छात्राओं के मानसिक उत्पीड़न से तो हम सालों-साल अवगत होते ही रहते हैं। लेकिन क्या किसी ने सोचा कि हम कथित सफल छात्र-छात्राओं को किस ओर धकेल रहे हैं। बस कुछ अंकों के कारण सबकी आँखों का तारा बने इन बच्चों पर उम्मीदों का बोझ डाल दिया जाता है। जिसके तले दब कर ये अपनी ज़िंदगी में रचनात्मकता को खो देते हैं और अपनी ज़िंदगी को केवल अंकों में ही देखने लग जाते हैं। अगली फ़िल्म कब देखनी है, फेसबुक, इंस्टा, पर कितनी तस्वीरें डालनी है, संगीत में दिलचस्पी होते हुए भी इसे आगे के रिज़ल्ट के लिए कुर्बान कर देना है, जहाँ कुछ रचनात्मक करने से ज़्यादा जरूरी बड़े-बड़े एग्जाम में सफल होना होता है, जहाँ पढ़ाई के नाम पर बच्चों का ध्यान प्रोसेस से ज़्यादा रिज़ल्ट की ओर बटाया जाता है। मानो जैसे एक तय मापदण्ड हो और सारे “ए” ग्रेड की श्रेणी में आने वाले बच्चों को उसी मापदण्ड के अनुसार चलना है। और इस रेस में दौड़ते दौड़ते शायद वो जीत भी जायें पर जो नहीं सीख पाते हैं, वो है परंपराओं को चुनौती देना, जीतने से ज़्यादा रेस में हिस्सा लेने को महत्व देना और अपने साथी जो इस रेस में कहीं गिर जाते हैं उनकी तरफ एक हाथ बढ़ाना। और फिर इस तरह ही तैयार होती है एक नई पीढ़ी जो फिर से पंरपराओं के जंजाल में फँस जाती है।